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» » » फिल्म ‘पायर' में दिखेगा पलायन का दर्द:विनोद कापड़ी के निर्देशन में बनी है फिल्म; डायरेक्टर को जंगल में लकड़ी काटते मिली एक्ट्रेस
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फिल्ममेकर और जर्नलिस्ट रहे विनोद कापड़ी की फिल्म पायर ने इमेजिन इंडिया फेस्टिवल में 6 नॉमिनेशन हासिल किए हैं। फिल्म के डायरेक्टर विनोद से फिल्म की प्रेरणा, कलाकारों का सेलेक्शन और फेस्टिवल के एक्सपीरयंस को लेकर बातचीत हुई…. इस फिल्म का विचार कैसे आया? मैं उत्तराखंड का रहने वाला हूं, उत्तराखंड में पलायन और खाली होते गांवों को देखकर दुख होता है। जब भी गांव जाता था ऐसी स्थिति को देखता था। ये चीजें मुझे बहुत परेशान करती थीं, तो एक बार जब मैं 2017 में घर गया तो पहाड़ों पर एक बुजुर्ग आदमी मिला, जिनकी परेशानी थी कि उनकी बीमार पत्नी को नीचे ले जाने के लिए लोग नहीं बचे। तो मैंने कहा कि आप कितने दिन तक इनको ऐसे लेकर जाते हैं तो बोले अभी कुछ लोग यहां पर हैं जो मेरी मदद कर देते हैं और बदले में मैं उनको अपनी बकरी दे देता हूं। उनके पास 20-25 बकरियां थीं। मैंने पूछा कि अब जिस दिन बकरियां खत्म हो जाएंगी उस दिन क्या करेंगे? तो उन्होंने कहा कि बकरियां खत्म होने से पहले तो हम खत्म हो जाएंगे। जब उन्होंने ऐसा बोला तो मुझे उनकी कहानी बहुत प्रभावित कर गई। मुझे लगा कि एक बुजुर्ग दंपति को केंद्र में रख करके एक कहानी कही जा सकती है। जिसमें पहाड़ का दर्द दिखाया जा सके। फिल्म पायर में आपने किसी प्रोफेशनल आर्टिस्ट को कास्ट क्यों नहीं किया? मैंने गांव के लोगों को ही कलाकार के रूप में लेने का फैसला किया। गांव में अब भी कई लोग हैं जो पहाड़ में रह गए हैं, वो सब अपने आपको हिमालय की संतान बोलते हैं और कहते हैं कि हम यह जगह छोड़ कर नहीं जाएंगे। इसलिए मैंने सोचा कि इस कहानी को कहा जाए और सबसे अहम बात जो मुझे लगी इसे गांव के लोगों के जरिए ही कहना चाहिए। इसमें किसी प्रोफेशनल एक्टर्स को नहीं लेना चाहिए और तब फिर मैंने गांव के दो बुजुर्गों को इसमें कास्ट किया। फिल्म में बुजुर्ग दंपति से एक्टिंग करवाना कितना मुश्किल रहा? कलाकारों को ढूंढना काफी मुश्किल काम था, इसमें ढाई महीने लग गए थे। फिल्म की एक्ट्रेस हीरा देवी तो जंगल में लकड़ी काटते हुए मिलीं। पुरुषों को ढूंढना फिर भी आसान था, क्योंकि वे खेतों में या ताश खेलते हुए मिल जाते थे। महिलाओं को ढूंढने में कठिनाई हुई, क्योंकि वे सुबह के बाद पूरे दिन जंगल में बकरियां चराने और घास-लकड़ी लाने जाती थीं। फिल्म के लिए हमें 70 साल से अधिक उम्र की महिला कलाकार की आवश्यकता थी। हमारी मुख्य कलाकारों ने पहले कभी कैमरे का सामना नहीं किया था, फिर भी उन्होंने बेहतरीन एक्टिंग की। उनसे बातचीत करने के बाद मुझे लगा कि वे फिल्म के मुख्य किरदार निभा सकते हैं। हमने उनके साथ वर्कशॉप भी कीं। उनकी सबसे अच्छी बात यह थी कि वे बहुत बात करते थे। एनएसडी के अनुभवी अभिनेता अनूप त्रिवेदी ने भी उनकी प्रतिभा को परखा और कहा कि दोनों कलाकार कमाल के हैं। दोनों ने अपने जीवन में अपने साथियों को खोया है। पदम सिंह प्रोस्टेट कैंसर से जूझ रहे हैं और कीमोथेरेपी करवा रहे हैं, फिर भी वे विभिन्न फिल्म समारोहों में जा रहे हैं और इस एक्सपीरयंस को अपने 80 साल के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं। इसे फिल्म की तरह ही क्यों बनाना तय किया, डॉक्यूमेंट्री क्यों नहीं? डॉक्यूमेंट्री भी की जा सकती थी, लेकिन हमारे देश में डॉक्यूमेंट्रीज का चलन बहुत कम है। इन्हें बहुत कम लोग देखते हैं और प्लेटफार्म भी मिलना बहुत मुश्किल होता है। स्टूडियो भी नहीं मिल पाता। इसलिए फिल्म के तौर पर सोचा। गांव के कलाकारों के साथ फिल्म को लोग क्यों देखेंगे, यह बड़ा संघर्ष था। अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिलने पर ही भारत में ऐसी कला समझ आती है। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फिल्म को ले जाने की योजना बनाई। इसमें जो हमारी एडिटर हैं वो जर्मनी की हैं। पैट्रिशिया रोमेल, जिन्हें ‘द लाइफ ऑफ अदर्स’ के लिए ऑस्कर मिला था उनसे पूछा कि इसे एडिट करेंगी तो वह तैयार हो गईं। फिर मैंने म्यूजिक के लिए माइकल डैना से संपर्क किया, वह भी ‘लाइफ ऑफ पाई’ के लिए ऑस्कर जीत चुके हैं। जब ये दोनों ऑन बोर्ड आ गए तो लगा कि मैं जो रूट देख रहा हूं इस फिल्म के लिए वह सही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे कैसी प्रतिक्रिया मिली? बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली। यूरोपियन ऑडियंस ने 7-8 मिनट तक स्टैंडिंग ओवेशन दिया। अभी आने वाले वीक में बेल्जियम में प्रीमियर है, फिर उसके बाद स्पेन में है, अमेरिका में है। तो कई जगह से बड़े फेस्टिवल हैं, जिनकी अच्छी प्रतिष्ठा है वहां इसे दिखाया जाएगा। बाकी बतौर फिल्ममेकर मेरा जो संघर्ष है कि ‘पीहू’ में 2 साल की बच्ची से एक्ट करवाया और फिर 80 साल के दो नॉन एक्टर्स से ‘पायर’ में काम कराया। तो ये एक तरह का रिस्क ही है जो मैंने लिया।क्या इस फिल्म के ऑस्क र में भी जाने की पॉसिबिलिटी है?वह तो हमारे हाथ में नहीं है लेकिन हम पूरी कोशिश करेंगे कि मतलब भारत की तरफ जो फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया है। वो इसे चूज करता है या नहीं। हमारा काम तो सिर्फ फिल्म बनाना है। अगर उन्हें लगेगा कि ये फिल्म ऑस्कर में भेजने लायक है तो जरूर जाएगी। मेरे लिए ये सुकून की बात है कि फिल्म को ऑडियंस का प्यार मिल रहा है वो अपने आप में किसी अवॉर्ड से कम नहीं है। फिल्म बनाने से पहले क्या कमर्शियल पहलू सोचते हैं? मैं ऐसी कहानियां कहना चाहता हूं जो जमीन से जुड़ी हों और वास्तविकता दिखा सकें। कमर्शियल या मसाला फिल्में मेरा टैलेंट नहीं है। मुझे लगता है कि हमारी फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान कम मिलती है, जबकि ईरान की फिल्में ज्यादा सराही जाती हैं। हमारी कहानी कहने में दिक्कत है। क्षेत्रीय सिनेमा, हिंदी सिनेमा से अच्छा काम कर रहा है। हिंदी में ज्यादातर रीमेक बन रहे हैं, ओरिजिनल कंटेंट कम है। मैं ओरिजिनल कंटेंट बनाना चाहता हूं। क्या फ्यूचर में कोई कमर्शियल फिल्म भी प्लान की है? हां, अभी मैंने एक क्राइम थ्रिलर में जयदीप अहलावत के साथ किया है। उसे कमर्शियल कह सकते हैं। वो फिल्म तैयार है, फिलहाल उसका नाम मैं नहीं शेयर कर पाऊंगा पर वो इस साल रिलीज हो जाएगी। रियल लाइफ कहानी तो आप बनाते ही हैं, पर क्या कोई बायोपिक भी प्लान में है? बायोपिक तो नहीं, पर मैं एक सच्ची घटना पर कहानी जरूर कहना चाहता हू‌ं। मेरी वह कहानी एक आम आदमी की होगी। एक व्यक्ति हैं विजेंदर सिंह जो अलवर, राजस्थान में रहते हैं। केदारनाथ में जब 10,000 लोग फंस गए थे तो उस वक्त ये भी अपनी पत्नी के साथ वहां गए थे। तब उनकी पत्नी बाढ़ में बह गई थी और उन्हें मृत घोषित कर दिया गया था। जिसके लिए इनके घर में मुआवजा भी पहुंचा दिया गया था। हालांकि, फिर भी विजेंदर सिंह के मन में एक सवाल था कि मेरी पत्नी का शव अभी तक नहीं मिला, तो मैं कैसे मान लूं कि वो मर गईं उसके बाद फिर उन्होंने अपनी यात्रा शुरू की और ये 19 महीने उत्तराखंड में रहे। 19 महीने के बाद इन्होंने अपनी पत्नी को खोज निकाला। तो मैं ऐसी कहानी कहना चाहता हूं। बायोपिक के तौर पर भी मेरी अगर कोई कहानी होगी तो वो एक ऐसी कहानी होगी जो एक आम आदमी से जुड़ी होगी।

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